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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :9788183611718

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


फिर भी उनका, जिन्होंने सम्मिलित परिवार के सुख भोगे हैं, कठिन धार्मिक अनुष्ठानों का सहर्ष निर्वाह किया है, कठिन परिस्थितियों से समझौता कर सन्तान को सुयोग्य बनाने की चेष्टा की है और सफल भी रहे हैं, कुछ कर्तव्य अवश्य है। पहली शिक्षा, जो परिवार में रहकर हमने सीखी और बच्चों को सिखाई, वह है, पैसे का मूल्य, या अंग्रेजी में कहें तो 'वैल्यू ऑफ मनी'। बच्चे कभी पिता से चवन्नी भी माँगते, तो किसी कृपण महाजन की भाँति पिता अवश्य पूछते, 'क्यों चाहिए?' यह 'क्यों' अब हमारे जीवन के शब्द-कोश में नहीं रहा।


न उस जीवन में कपड़ों की ही ऐसी चमक-दमक थी, न फरमाइश। बड़े भाई-बहनों की उतरन पहनकर ही बच्चे बड़े होते थे, और मेरी यह दृढ़ धारणा है कि जो भाई-बहनों की उतरन पहनकर बड़े होते हैं, वह सिक्के कभी खोटे नहीं निकलते। न हमारी पीठ पर कभी दस-दस सेर का उँसा-फंसा बस्ता रहा, न ऐसा होमवर्क, जो अब कभी-कभी बच्चों का मेरुदंड बचपन से ही झुका कर रख देता है।

लेखनी वही सार्थक है, जो जीवन की जटिलताओं को स्वचक्षुओं से देख, स्तुति निन्दा के भय से मुक्त हो, सत्य को लिपिबद्ध कर सके। उसका यह प्रयास, कभी व्यर्थ नहीं जा सकता। इसी से जब आज जीवन की उन्हीं जटिलताओं के जंग लगे लौह कपाटों की कुंडी खोलने खड़ी होती हूँ, तो किसी प्रकार का भय या ग्लानि मुझे त्रस्त नहीं करती। भले ही यह जीर्ण दस्तावेज हमें इस यान्त्रिक युग में बेमानी लगे, किन्तु हमें अभी भी बहुत कुछ सिखा सकता है।

यह तो संसार का चिरकाल से चला आया एक अद्भुत नियम है कि जो कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं होगा। युग ने बड़ी बेरहमी से करवट बदली है। अतीत में क्या होता था और क्या नहीं, यह सोचने का समय ही किसे है? किन्तु कभी-कभी अतीत का सिंहावलोकन भी हमारे लिए आवश्यक है। वह अतीत, जहाँ विलासिता में भी आभिजात्य का स्पर्श था। मेरा बचपन, कैशोर्य रियासतों में बीता है और इतना दावे के साथ कह सकती हूँ कि वे राजा, आज के नये-नये बने नृपतियों से कहीं अधिक उदार थे, कहीं अधिक सहृदय। ऐसी बात नहीं थी कि वे सब दूध के ही धुले हों। अगाध सम्पत्ति हो, तो खान-पान, रहन-सहन में तामसिक पुट का आ जाना स्वाभाविक है, किन्तु वे अपने अटूट वैभव के अकेले कृपण भोक्ता नहीं रहे। कलाकारों का पोषक, गुरु का अनन्य भक्त-रानी हों या रक्षिता-दोनों को समान दृष्टि से देखनेवाली वह पीढ़ी प्रीवीपर्स के साथ ही चुक गई।

मेरे पिता के शिष्य जसदण के आलाखाचर ने अन्त तक मेरी माँ को पेंशन दी, ओरछा महाराज बीरसिंह जू देव को मेरे पिता ने कभी गायत्री मन्त्र दिया था। पिता की मृत्यु हुई तो उन्होंने बड़े सम्मान से हमें बुला भेजा, मेरे भाई को अपना सेक्रेटरी बनाया, मेरा कन्यादान किया, हमें वे ही सुविधाएँ दीं, जो हमारे पिता को प्राप्त थीं। शायद यही कारण है कि अभी भी बुन्देलखंड मुझे अपना मायका ही लगता है। यह जन्मजात रईसी, तब सर्वत्र एक-सी थी।

कुमाऊँ का अतीत भी, वर्तमान की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध था। गरुड़ ज्ञानचंद जैसे राजा, जब नजराना लेकर मुगल दरबार में गए, तो कहते हैं कि सोने के चँवर से लेकर भोट देश के घोड़े, कालीन, सोने की ईंटें देख, मुगलों की आँखें चौंधियाँ गई थीं, किन्तु धीरे-धीरे क्रूर गोरखा शासन से ही कुमाऊँ की समृद्धि का विनाश आरम्भ हो गया।

कहा यह भी जाता है कि कभी यहाँ सोने की खानें थीं। पता नहीं वे कहाँ और कब विलीन हो गईं। फिर भी कुछ इने-गिने रईस रह गए थे। हमारे ही एक परिचित परिवार की रईसी के बारे में बहुत कहानियाँ सुनी थीं कि उनके घर में आग लगने पर पीढ़ियों से संचित सोने के ठोस नीबू, पिघल-पिघल कर बृहने लगे थे (तब पहाड़ के समृद्ध गृहों में सोने के बड़े-बड़े नीबू ही संचित किए जाते थे, जैसे इस युग में सोने के बिस्किट दुबई और कुवैत से लाकर संचित किए जाते हैं), किन्तु सोने की ईंटें प्रत्येक गृह में भले ही न हों, कुल की मर्यादा को सदा अक्षुण्ण रखा जाता था। कुलगोत्र देख-परखकर ही, कन्या या पुत्र का विवाह सम्बन्ध स्थिर किया जाता था। कितना ही सुयोग्य पात्र क्यों न हो, यदि कन्या के कुल के योग्य न हो, तो कन्या के पिता को उसे अमान्य घोषित करने में न क्षण-भर का विलम्ब होता था, न रिश्ता फेरने का दुख। ऐसे ही कन्या की कुण्डली में यदि लग्न से अष्टम भाव में मंगल स्थित हो. तो कंडली खोटे सिक्के-सी ही लौटा दी जाती। यह निश्चित वैधव्य योग फिर आजीवन उसे इँसता रहता। यद्यपि यहाँ भी उत्कोच ग्रहों में उलटफेर कर सकता था और खोटे सिक्के को भी चलाया जा सकता था, किन्तु ललाट लिपि को, भला चतुर-से-चतुर पंडित भी कैसे मिटा सकता है? मैंने अपनी ही ससुराल में यह सब होते देखा है। मेरी एक चचेरी ननद की कुंडली में अष्टम मंगल देख, उनके पिता के प्राण कंठागत हो गए थे। तब क्या उनकी लाडली पुत्री को आजीवन कौमार्य व्रत धारण करना होगा? उनके कुलपुरोहित, उनके परममित्र भी थे। उनके इसी मिथ्या भाषण के लिए उनके यजमानों ने उनका नाम धर दिया था ‘फसका ज्यू' अर्थात् परले सिरे का गप्पी।

“पंतजी, क्यों दुखी होते हो? मैं सब ठीक कर दूंगा, अब उसकी नई कंडली ही रिश्ते के लिए भेजना।" उन्होंने नई कुंडली बनाई, 'क्रूरे अष्टमे विधवता निधनेश्वरोशे' को बदल लग्नगत बुध शुक्र से कुंडली मंडित कर दी, अर्थात् कन्या सुन्दरी, सौभाग्यशालिनी और अनेक कला-ज्ञानादि से सम्पन्न होगी। उस ग्रहस्थिति ने कन्या के सौभाग्य द्वार तो खोल दिए, पर अष्टम मंगल ने उनके क्षणिक सौभाग्य पर अपनी घातक मोहर लगाने में विलम्ब नहीं किया। वैधव्य उसकी कटु नियति बन गया।

बाल-वैधव्य! बालविवाह कर कन्यादायग्रस्त माता-पिता, तब भले ही गंगा नहा लें, उस समय की बाल-विधवाओं का जीवन देख प्रियजनों को लगने लगता था कि क्या कभी कुमाऊँ की ये निर्दोष भोली बालिकाएँ, अपने अभिशप्त जीवन से मुक्त होंगी?

हमारे ही परिवार में हमारी एक रिश्ते की बुआ थीं। विवाह के कुछ महीनों बाद जब विधवा हुईं, तो वयस थी बारह वर्ष।
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